Ghosla-घोंसला
Ghosla- बाबूजी,मैंने बालकनी में चारो तरफ चिक लगवाकर कमरा तैयार करा दिया है, आप उसी में शिफ्ट हो जाइयेगा।”
सुबह-सुबह चाय पकड़ाती हुई रीता बोली तो दीन दयाल चौंक गये,,,”क्यों बहू,,,,क्या हो गया?”
” क्योंकि बबलू को पढ़ने के लिए अलग कमरा चाहिए ना! आप तो समझ सकते हैं कि आजकल के बच्चे प्राइवेसी चाहते हैं तो,,,,”
“वो तो ठीक है, लेकिन मैं बालकनी में कैसे,,,?”
“तो क्या हुआ! अब इस उम्र में आपको काम ही क्या है बाबूजी? वहाँ आराम से पड़े-पड़े भगवान का नाम जपते रहियेगा” वह मुस्कुराई।
“लेकिन मैं बाहर कैसे रहूँगा बहू? और वैसे भी अब इस उम्र में ज़्यादा सर्दी हो या गर्मी..मुझसे सहन नही होती है। ऐसा करो,बबलू से बोलो मेरे कमरे में ही पढ़ लिया करे,मैं उसे डिस्टर्ब नही करूँगा।”
“उफ्फ़ !! बाबूजी आप भी न,बिल्कुल नही समझते!” अचानक रीता तमतमा सी गई… “फिर आपने घोंसले जैसा घर क्यों बनवाया?”
“घोंसले जैसा” सुनकर वो सोच में पड़ गये। पत्नी पार्वती कहती थी “किराये के मकान में बहुत रुपया खर्चा होता है,सारी तन्ख्वाह उसी में चली जाती है ,इसीलिए पहले निजी मकान होना चाहिये” तब जितनी सामर्थ्य थी उससे ज़्यादा पैसा लगाकर छोटा सा मकान बनवा लिया। भले ही लोन चुकाते-चुकाते बाल सफेद हो गये लेकिन सब बहुत खुश थे कि छोटा सा ही सही,अपना मकान तो है। लेकिन पार्वती अपने घर का सुख नही भोग पाई,सिर्फ़ दो वर्षों में ही साथ छोड़कर चली गई और आज उन्हें ही घर से बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है,,,दीनदयाल का दिल भर आया।
“अब क्या सोच रहे हैं बाबूजी?” उन्हें चुप देखकर रीता ने पूछा।
“यही कि तुम सही कह रही हो” उन्होंने गहरी साँस ली “मैंने तो घोंसला बनवाया है!पर हो सके तो तुम ख़ूब बड़ा सा मकान बनवाना,ताकि बुढ़ापे में कोई तुम्हें बाहर रहने को ना बोले…और हाँ बहू, तुम्हें जो करना है, वो इंतज़ाम कर सकती हो…पर अपना कमरा छोड़कर मैं कहीं नही जा रहा।”
कल्पना मिश्रा
कानपुर